الخميس، 23 أبريل 2020

नादान बने क्यों बेफिक्र हो ?

नादान बने क्यों बेफिक्र हो ?

नादान बने क्यों बेफिक्र हो, दुनिया जहान से !  
हे सिर पे बोझ भी तुम्हारे, हर लिहाज़ से !! 

विनम्रता नहीं आती तो, समय पर ही सीख लो !
कुदरत की सीख बड़ी होती हैं, समय के लिहाज़ से !!

रुकते नहीं है क्षण, चाहे सुख के हो या दुःख के !
हर काम बड़ा होता हैं, वक्त के लिहाज़ से !!

तुम क़द्र करोगे किसी की, तो तुम्हारी भी बढ़ेगी !
इंसानियत जरुरी होती हैं, क़द्र के लिहाज़ से !!

ये रिश्ते बड़े नाजुक है, यूँही टूट जायेंगे !
व्यवहार बड़ी चीज है,  रिश्तो के लिहाज से !!

गम साथी है हमारा, मौत तक साथ निभाएगा !
रिश्तो का दर्द ही है, जो जीवन दिलाएगा !!

खुशियां नहीं बिकती, किसी भी बाजार में !
ढूंढो उन्हें अपने ही, जीवन के सार में !!

मिलता हैं सबको रब से, बराबर का सब सामान !
तभी गम की जमीं पर है, खुशियों का आसमान !!

الخميس، 16 أبريل 2020

How do I get sweetness in my life?

STAYING HAPPY; Who get to decide? (Happiness Series part 1) — Steemit
How do I get sweetness in my life?
How do I get sweetness in my life?
How to remove the bitterness in my life?
Are the problems only for me?
Do people mind me?


I also have to change my life.
I will also some mistake, which lead me to defeat.
I have lost something from the poison of my tongue.


That is why questions arise in the mind .............

How long will people bear me, when will I change my path?
When will I call success, when will my life be shaped?


Probably not in the present despair because .............

I am a man who lives in conflict and finds laughter and smiles in him.
I am not a machine that has to be run by instructions.
I am not a clown who can cry and make the world laugh.


That's why I think .............

I am carving like a stone from which an idol will be built.
I am running like a runner who gets a gold medal one day. 


This is my lifestyle, which will show the path of hope from despair.
That hope will bring sweetness in my life.

कैसे लाऊँ मैं अपनी ज़िन्दगी में मिठास ?

STAYING HAPPY; Who get to decide? (Happiness Series part 1) — Steemit
कैसे लाऊँ मैं अपनी ज़िन्दगी में मिठास ?



कैसे लाऊँ मैं अपनी ज़िन्दगी में मिठास ?
कैसे निकालूं  अपने जीवन में भरी कड़वाहट ?
क्या तकलीफें मात्र मुझे ही हैं ?
क्या लोग मुझे ही बुरा मानते हैं ?

कुछ तो मुझे भी बदलना होगा, अपनी ज़िंदगी को। 
कुछ तो मेरी भी गलतियाँ होगी, जो मुझे पराजय  दिलाती हैं। 
कुछ तो मैंने भी खोया होगा अपनी जिव्हा के जहर से। 


तभी तो मन में उठते हैं सवाल ............  

कब तक सहेंगे लोग मुझे, कब बदलूँगा मैं अपनी राह ?
कब पुकारेगी सफलता मुझे, कब मिलेगा मेरी ज़िंदगी को आकार ?

वर्तमान निराशा में शायद नहीं क्योंकि ............

मैं मनुष्य हूँ जो संघर्ष में जीता है और उसी में ढूंढता हैं हंसी और मुस्कराहट। 
मैं मशीन नहीं हूँ जिसे निर्देशों से संचालित होकर चलना हैं। 
मैं जोकर भी नहीं हूँ जो खुद रोकर दुनिया को हँसाऊ। 


तभी तो मैं सोचता हूँ ............

मैं फट रहा हूँ उस दूध की तरह जिससे रसगुल्ला आकार लेता हैं। 
मैं गढ़ा जा रहा हूँ उस पत्थर की तरह जिससे एक मूर्ति का निर्माण होगा। 
मैं दौड़ रहा हूँ उस धावक की तरह जिसे एक दिन स्वर्ण पदक मिलता हैं। 

यही हैं मेरी जीवनचर्या जो कभी निराशा से आशा का मार्ग दिखलायेगी। 
वही आशा लाएगी मेरी ज़िन्दगी में मिठास।

السبت، 11 أبريل 2020

एक सफर अब चलो....................

एक सफर अब चलो !

एक सफर अब चलो, हम चाँद के साथ करें। 
कैसी होती हैं चाँदनी रात, तहक़ीक़ात करें।


गाये हम गीत, हाथों में हाथ लिए। 
 चलों चाँदनी रात में, हम फिर से मुलाक़ात करे।

 एक सफर अब चलो, हम चाँद के साथ करें। 
कैसी होती हैं चाँदनी रात, तहक़ीक़ात करें। 

पहले ली थी कसम, जुदा कभी न होने की। 
चलो अब मिल के, प्यार का इज़हार करें।

संग तुम हो तो रात, कुछ और हसीन होती हैं। 
चलो हम जाग कर, सुबह का इंतज़ार करें।

 एक सफर अब चलो, हम चाँद के साथ करें। 
कैसी होती हैं चाँदनी रात, तहक़ीक़ात करें। 

तुम अगर हो तो, रात पूनम की। 
 तुम अगर ना हो तो, अमावस का एहसास लगें।


तुम हो तो, चमन में फूल खिलते हैं। 
गर तुम ना हो तो, दिल और दुनिया वीरान लगे।

 एक सफर अब चलो, हम चाँद के साथ करें। 
कैसी होती हैं चाँदनी रात, तहक़ीक़ात करें। 

मेरी मेहनतकश ज़िन्दगी का, आधार हो तुम। 
ज़िन्दगी के हर पल में, ये साथ गुलज़ार लगे।

एक सफर अब चलो, हम चाँद के साथ करें। 
कैसी होती हैं चाँदनी रात, तहक़ीक़ात करें।    

الأربعاء، 8 أبريل 2020

"सकारात्मकता" कोरोना युध्द का हथियार

COVID-19: India lights candles in a show of solidarity against ...
"सकारात्मकता" कोरोना युध्द का हथियार 


सम्पूर्ण विश्व इन दिनों कोरोना वायरस की चपेट में आया हुआ हैं। COVID 19 नामक इस वायरस के जन्म दाता के रूप में विश्व के सबसे बड़ी वाले राष्ट्र चीन का नाम सभी की जुबान पर हैं। विश्व की सबसे बड़ी महामारी से लड़ने के लिए देश के "प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी" की अपील पर अभी सम्पूर्ण देश लॉक डाउन की स्थिति में घर पर हैं। आपदा से निपटने का यह वक्त प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भूमिका के सुचारु निर्वाहन का हैं। आपका कार्यालय, विद्यालय, फैक्ट्री, वर्कशॉप, शोरूम, दुकान, फैरी, टपरी कुछ भी हो सभी बंद हैं। देश के नागरिकों को अपनी देश भक्ति घर पर ही निभाना हैं। घर पर रहकर समय व्यतित करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता। बड़ा परिवार, बच्चे, बूढ़े  और हँसी-ख़ुशी का वातावरण हो तो समय उत्तम भाव से व्यतित हो जाता हैं, परन्तु एकांत में रहकर व्यक्ति के लिए यह कालखंड बहुत सी नकारात्मकता के भाव उत्पन्न करता हैं। चूँकि मैं इस विषय पर लिख अवश्य रहा हूँ मगर नकारात्मकता क्या होती है यह अनुभव मुझे इन दिनों नहीं आया क्यूंकि जिंदगी की भागदौड़ में मैं इतना थक चूका था कि मुझे अपने लिए अपने अंदर छुपी प्रतिभा के लिए और जीवन में कुछ पढ़ कुछ लिख सकूँ इसके लिए वक्त, वातावरण और परस्थितियाँ मिल ही नहीं पा रही थी। 


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"सकारात्मकता" कोरोना युध्द का हथियार 
कोरोना वायरस के संबंध में जनवरी से सुन - पढ़ रहे थे मगर यह हमारे जीवन को इस कदर प्रभावित करेगा। यह कभी सोचा भी नहीं था। घर पर रहने की आदत नहीं ! जीवन में टेलीविज़न का महत्व इतना बढ़ गया हैं कि थोड़े से फुर्सत के क्षण आते ही टी.वी. के सामने बैठ जाते हैं। समाचारो में कोरोना और उसके प्रभावितों के बारे में सुन-सुनकर मन में क्षणिक भय तो होता ही हैं। सब कहते हैं सकारात्मक भाव रखो और वह  रखना जरुरी भी हैं। सुनी सड़के, सुनी गलियां भरी दोपहरी में रात के सामान सुनसान वातावरण मन में सकारात्मक भाव उत्पन्न कैसे करेगा ?

भारत सरकार ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में "रामायण" और "महाभारत" के पुराने एपिसोड प्रारम्भ करके देश को एक नई दिशा दी हैं। भारतीय संस्कृतिक इतिहास में टी.वी. के माध्यम से इन पात्रों के सजीव चित्र हमारे मानस में इतने बस गए है कि राम और सीता के रूप में यदि हम आँखे बंद करके उन्हें याद करे तो राम-सीता के चित्र में उन्हीं कलाकारों के चित्र मानस पटल पर उभरते हैं। 


आज ऐसा लग रहा हैं कि पुरे देश को एनेस्थीशिया में कर दिया गया हैं। सत्ता का विरोध करने वाले मामले के गंभीरता को न समझकर इस प्रकार के वाक्य बोल रहे हैं। वे यह नहीं बताते की आखिर सरकार को इससे लाभ हैं या नुकसान। 

अमेरिका में सही समय पर लॉक डाउन का कदम न उठाकर अपने पुरे देश को गर्त में या मौत के मुंह में धकेल दिया हैं। क्या हमें अपने सरकार पर गर्व नहीं होना चाहिए? आज देश में हर घर में संचार के माध्यम उपलब्ध हैं। हम अपनी ज्ञान क्षमता बढ़ाने का यह महत्वपूर्ण समय हैं। हम अपनी रूचि के काम इस समय पुरा करे जैसे - योगाभ्यास, गायन, पाककला, कविता लेखन, कहानियां/उपन्यास/लेख का लेखन या पठन आदि विषयों के साथ जिन्हे गाने सुनने फ़िल्में देखने का शौक हो और सामान्य जीवन में समय की कमी के कारण पूरा नहीं कर पाते हो लॉक डाउन के इस फुर्सत के समय में समय का सदुपयोग कर घर पर बैठकर पूरा कर सकते हैं।  अब समय बदल चूका हैं। 



इन दिनों Work Form Home यानि घर पर बैठकर कार्य करना भी चलन में हैं। Online services में या घर बैठकर लैपटॉप या डेस्कटॉप पर बैठकर देश-विदेश की सेवाओं में कार्यरत कर्मचारी कार्य कर रहे हैं। इन दिनों विद्यार्थियों को ऑनलाइन क्लासेस के माध्यम से शैक्षेणिक कार्य भी पूर्ण करवाया जा रहा हैं, इन सब बातों से एक ही बात निकलकर आती हैं कि संक्रमक रोग की जो दहशत हमारी जनता में हैं उसे दहशत न मानकर स्वेच्छिक रूप से स्वीकार करना चाहिए। सरकार का यह कदम रोग के बचाव का एक बड़ा उपाय हैं। राष्ट्रभक्तों की देश में कोई कमी नहीं हैं। हम घर में बैठकर यदि संक्रमण को बढ़ने से रोक सके तो भी इस समस्या से निजात पा सकेंगे। 

The Power of Positive Thinking and Attitude
"सकारात्मकता" कोरोना युध्द का हथियार 
विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुडी एक संस्था ने अपने सर्वे में बताया के कोरोना वायरस के संक्रमण के खतरे को देखते हुए लॉक डाउन की जो परिस्थिति निर्मित हुई हैं उससे अवसाद  यानी डिप्रेशन  के मरीज़ के संख्या में 20% का इजाफा हुआ हैं। 
कई स्थानों पर शहरों में रहने वालें विद्यार्थी या नौकरी पर रहने वाले व्यक्ति या जिनके बच्चे नौकरी या अन्य कारणों से बाहर हो ऐसे बुजुर्ग अकेलापन महसूस कर रहे हैं। 

हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने 5 अप्रेल को रात 9 बजे 9 मिनिट तक दीपक जलाकर देश को एकत्र कर दिया। यह मनुष्य से मनुष्य को जोड़ने और देश में सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करने की दिशा में बड़ा कदम हैं। मनुष्य के मन में सकारात्मक ऊर्जा के संचार से कई शारीरिक और मानसिक व्यधिया दूर हो जाती हैं। कोरोना वायरस की ही नहीं जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में सकारात्मकता ही उन्नति के शिखर की ओर ले जाती हैं। 


भटक रहा था मेरा ये मन, ऊँची-नीची बातों में। 
संयम रहा न मन मेरे, विपरीत हालातों में।
ईश्वर सत्ता साथ हैं मेरे, जीवन की हर साँसों में। 
मैं न डरूंगा, मैं न डिगूंगा, इन सारे झंझावातों में।  

السبت، 4 أبريل 2020

दीप अब जलाएं हम। कोरोना को भगाएं हम।।

दीप अब जलाएं हम। कोरोना को भगाएं हम।। 


दीप अब जलाओ तुम, पास में ना आओ तुम। 
सोच अपनी उच्च शिखर, की ओर ले जाओ तुम।


Here's what social distancing entails - Orders from the centre ...
दीप अब जलाएं हम। कोरोना को भगाएं हम।। 
तुम रहो दूर, मैं ना आऊं पास। 
सोशल  डिस्टेंसिंग में, यही है व्यवहार



कोरोना से डरोना, कह रही सरकार। 

घर के अंदर सज रहा, प्यार का दरबार।


दिन गुजर रहे हैं ,रातों के जैसे। 

रातों को जागे हम, भूतों के जैसे।

क्षण प्रतिक्षण मन में, चिंता सताए। 

विश्व की महामारी को, हम कैसे भगाये।


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दीप अब जलाएं हम। कोरोना को भगाएं हम।।  

सुनी है गलियां, सुने चौराहे।
बाजार में अब, सन्नाटा पसराये।

हिम्मत ही साथ हैं, अब तो हमारी। 

दुनिया डरी है , ये कैसी महामारी।


चीन ने रची थी दुनिया को तबाह करने ...
दीप अब जलाएं हम। कोरोना को भगाएं हम।।  

चीन बन गया अब, दुनिया का दुश्मन। 

मानवता पर आया हैं, कैसा यह संकट। 

गर्त में गए हैं, सेंसेक्स हमारे। 

मजदूरों को हम, अब कैसे सम्हाले।

राम जी कर दो, अब कृपा तुम्हारी। 

तप रही संकट में, अब धरती हमारी।

आओ अब, एक दिया जलाओ। 

मन के अंधकार को, जल्दी भगाओ।

दीप की ज्योत, मन में आशा जगाये। 

मानव को अँधेरे से प्रकाश में लाये

الثلاثاء، 31 مارس 2020

बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते

बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते 

माँ के गर्भ में नौ माह तक रहने वाला पुत्र यदि अपनी माता को अलग कर दे तो जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती हैं। आपके जन्म से नौ माह पूर्व आपका नाम, आपका स्वरूप, आपके सम्पूर्ण गौरवशाली जीवन के लिए बोझ बन जाय तो यह समाज के गिरते स्तर को दर्शाता हैं। वर्तमान समय में घटते संयुक्त परिवार समाज का एक नया आईना दिखता हैं। अपने जीवन काल का अधिकांश समय व्यक्ति इस उम्मीद में बिताता हैं कि यदि मेरे बच्चे जीवन में कुछ बन गए तो मेरा नाम भी रोशन करेंगे और मेरे जीवन काल का उत्तरार्ध भी सार्थक हो जायेगा।

भगवान राम की तरह पिता की  आज्ञा का पालन कर 14 बरस के वनवास पर निकल जाय हम यह अपेक्षा नहीं करते परन्तु सामान्य रूप से अपने माता-पिता के देखभाल का जिम्मा स्वयं के कन्धों पर न लेकर उन्हें एकांत या दुर्दशा की ओर मोड़ देने वाली संतान से निःसंतान होना क्या बुरा हैं। कम से कम समाज के सामने अपने संस्कारों के लिए तो लज्जित नहीं होना पड़ेगा। कई पुत्र-पुत्रियों की मजबूरी हो जाती हैं माता-पिता को अकेला छोड़ना मगर समाज में उन लोगों को देखता हूँ जो एक ही शहर में रहकर भी विघटन की दिशा में प्रवृत हो रहे हैं। 






वेदों में जब संस्कारों की बात आती हैं तो नामकरण संस्कार से लेकर पाणिग्रहण संस्कार अर्थात विवाह तक के संस्कार तो व्यक्ति अपने माता-पिता के चरणों में ही करता हैं फिर अचानक जीवन में क्या विपत्ति आ जाती हैं कि व्यक्ति अपने जीवन दाता को ही भूलने लग जाता हैं। समाज को इन सभी विषयों पर चिंतन की आवश्यकता हैं। 

समाज में अपना आदर्श स्थापित करने वाले उच्च वर्ग में इन दिनों यह बातें मुझे बहुत चिंताजनक लगती हैं। संयुक्त परिवारों के विघटन का मुख्य कारण मुझे जिंदगी जीने की आजादी लगता हैं। पति, पत्नी और बच्चे यह छोटा-सा घटक न कोई रोकने वाला न कोई डांटने वाला विवाह के कुछ वर्षों तक यह आजादी बेहतर लगती हैं परन्तु संयुक्त परिवार में तीन पीढ़ियों के संगम से बच्चों को जो संस्कार रूपी पूंजी मिलती हैं उससे व्यक्ति मालामाल हो जाता हैं 


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बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते  

मैं और मेरा परिवार यह छोटी सी इकाई में जिम्मेदारियां कम नहीं अधिक होती हैं जबकि संयुक्त परिवार में बच्चे सबके मध्य कब बड़े हो जाते  हैं, पता ही नहीं चलता। 

एक उच्चवर्गीय समाज में एक परिवार जिसमें मुखिया के पास बड़ी संपत्ति चार पुत्र, तीन  बहुएं जिनके विवाह संपन्न हो गए थे। ग्रामीण जीवन से शहरी वातावरण की ओर धीरे-धीरे पलायन शुरू हुआ और विघटन प्रारम्भ हो गया। पहले एक बेटा-बहु शहर आये फिर स्वयं का घर हो कहकर सास-ससुर और एक देवर शहर आये। धीरे-धीरे प्रयासों से कुंवारे देवर की शादी हो गई। अब भरापूरा परिवार हो गया। पैसे की कमी नहीं परन्तु अहंकार और आज़ादी की मांग ने विघटन कर दिया वो भी ऐसा की आज चारों पुत्रों के घर अलग-अलग और माता-पिता का अलग अपनी गृहस्थी चला रहे हैं। मैं समझ नहीं पाया किसे दोष दूँ , मेरा अधिकार भी नहीं परन्तु जब समाज में परिवारों के बिखराव का मुल्यांकन करता हूँ तो पाता हूँ कि दोष किसी एक व्यक्ति का नहीं सम्पूर्ण समाज का हैं। हमने अपने जीवन को पाश्चात्य संस्कारों की ओर इतना धकेल दिया की हमें अपने संस्कार बौने लगने लगे। आधुनिकता आपको यह नहीं सिखाती की आप अपनी जिंदगी को एक उपयुक्त माहौल में बिताने के चक्कर में एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से अलग कर दो। 


पिछले दिनों में मैंने अमिताभ बच्चन जी और हेमा मालिनी जी की फिल्म बागबान देखी थी। बच्चे अपनी स्वयं की सफलता में अपने पलकों का योगदान भूल ही जाते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए की उनकी सफलताओं के पीछे उनके माता-पिता  क्या योगदान हैं ?

इस सम्पूर्ण विषय का एक हिस्सा पत्नी यानि बहु का भी बड़ा होता हैं। व्यक्ति जीवन में विवाह की पश्चात कभी-कभी ऐसे पायदान पर खड़ा हो जाता हैं कि उसे अपनी पति और माता-पिता में से किसी एक के चयन की स्थिति सामने आ जाए तो कई बार स्वयं माता-पिता अपने पुत्र से कह देते हैं कि "हमारा जीवन शेष ही कितना हैं तुम अपनी पत्नी के साथ व्यवस्थित जीवन बिताओं। 

बेटी को विदा करते समय क्या संस्कार देकर ससुराल भेज रहे है यह भी एक महत्वपूर्ण बात हैं। मेरी बेटी अलग रहे, उसे सम्पत्ति के सारे अधिकार मिले, पति उसकी सभी बातें माने परन्तु सास-ससुर, देवर-ननद का झंझट नहीं। नौकरी वाला लड़का मिल जाय ताकि दूसरी जगह ट्रांसफर करा कर निश्चित जिंदगी का निर्वाहन किया का सके। 




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एक पक्ष और होता हैं वही माता और उनकी बेटी सोचती हैं कि हमारी बहु ऐसी हो जो साक्षात लक्ष्मी हो, घर को व्यवस्थित संभाल सके, सभी आने जाने वालों का सत्कार करें, सयुंक्त परिवार में रहकर सभी रिश्तों की मर्यादा को पूरा करें। जो मापदंड हम बेटी की लिए करते हैं, वही बहु के लिए नहीं करते। 

समाज में बहु और बेटी का यही अंतर बड़ा कारण हैं, परिवारों के विघटन का जीवन की सार्थकता का प्रश्न परिवार का साथ रहना, साथ भोजन बनाना नहीं हैं। रिश्तों में एक-दूसरे के प्रति लगाव और समाज में आपका परिवार एक आदर्श स्थापित करें, ऐसे परिवार में जिस शहर में रहता हूँ वहां भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। 



New program seeks to help lonely seniors in Sooke – Sooke News Mirror
बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते  
एक ओर विषय परिस्थिति समाज के सामने हैं - एक ही बेटा हो और वह शहर या विदेश चला जाय नौकरी की खातिर। ऐसे में शहरों के छोटे घर या विदेशों में माता-पिता को ले जाना संभव नहीं कर सकतें कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता हैं। 

मेरा विचार हैं समाज में इन विषयों पर खुलकर चर्चा-परिचर्चा संवाद की आवश्यकता हैं। लोक-लाज और समाज के सामने अपनी बात न कह पाने की घुटन भी व्यक्ति को अवसाद मार्ग की ओर ले जाती हैं। 


कहते हैं  "जहाँ चार बर्तन हो टकराने की आवाज़ आती ही हैं।" अब यह बात सिर्फ कहावतों में सिमट गई हैं। घायल का दर्द घायल ही जनता हैं। सब एक दूसरे के दुःख से वाकिफ हैं मगर दवा कोई नहीं ढूँढ रहा हैं। 

दवा हमारे अपने अंदर ही हैं। मेरे पिछले ब्लॉग "हमारे ज़माने में" में मैंने पीढ़ी अंतर की बात कही थी, वह भी इन परिस्थितियों में लागु होती हैं। 

हमें समय के साथ चलना होगा। जीवन की इस परिवार रूपी संस्था में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं हैं। कोई भी आ रहा हैं, कोई भी जा रहा हैं ?




टूट रही हैं कड़ियाँ, बिखर रहा हैं आँगन। 
सुना हैं गलियारा, याद आ रहा हैं बचपन।
नानी की कहानियाँ, दादी  की लोरियां। 
चाचा का प्यार, दादाजी की फटकार।
दस पैसे का सिक्का, ढेर सारी गोलियाँ। 
ढूंढ रहा हूँ मैं, ढूंढ़ रहा हूँ मैं।

الخميس، 26 مارس 2020

हमारे ज़माने में

हमारे ज़माने में 


आज एक नए विषय पर लिखने का विचार मन में जागृत हुआ ! बचपन से आज तक सुनता आया हूँ "हमारे ज़माने में" यह वाक्य अक्सर एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी से कहती हैं। पीढ़ी का अंतर समय के बदलाव के साथ होता हैं और उस अंतर को स्वीकार करने का मन किसी का नहीं होता हैं। नई पीढ़ी अपने वरिष्ठों की बात को नहीं स्वीकार करती तो पुरानी पीढ़ी नए संस्कारों को कभी "आवारगर्दी" तो कभी "एक्स्ट्रा आर्डिनरी" कह कर माजक उड़ाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इस अंतर को स्वीकार करने के लिए बड़ा मन रखना होगा। 


आज़ादी के पश्चात भारतीय संस्कारों में शिक्षा पद्धति में जीवन जीने की पद्धति में बड़ा बदलाव आया हैं। कम्प्यूटर शिक्षा, विज्ञानं की प्रगति, चिकित्सा पद्धिति में बदलाव को तो स्वीकार करते हैं परन्तु वस्त्रों की आधुनिकता, मोबाईल चलाने जैसे कामों को घर के बुजुर्ग स्वीकार नहीं कर पाते। मीठा-मीठा गपगप और कड़वा-कड़वा थूं -थूं  करने वाली यह बात स्वीकार नहीं हो पाती हैं। 


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हमारे ज़माने में 
मैं वर्तमान में अपनी पीढ़ी को सैंडविच स्थिति में पाता हूँ।  एक ओर मझसे बड़ी पीढ़ी और दूसरी ओर मुझसे छोटी पीढ़ी। मैं दोनों पीढ़ियों के मध्य रहकर हमारे ज़माने में वाली बात कह नहीं सुन जरूर पता हूँ। मैं युवा पीढ़ी  की आधुनिकता को स्वीकार तो करता हूँ, मगर अपने से बड़ी पीढ़ी के संस्कारों के सम्मान को कम भी नहीं आंक सकता हूँ। 

मैंने अपनों से बड़ों का सम्मान उनके विचारों को अपनाकर करने का प्रयत्न किया परन्तु धीरे-धीरे यह महसूस होने लगता हैं कि आप जब किसी अन्य पीसी के विचारों को स्वीकार करने का प्रयत्न करते हैं तो आप से उस पीढ़ी की अपेक्षाएं बढ़ने लगती और आप चाहे उनकी बात का विरोध करते हो तो या तो पुरातन या आधुनिक की बात आप पर थोपी जाती हैं। 

घर में नई बहु का आगमन कई विसंगतियां लेकर आता हैं। कहते हैं "मूल से ब्याज अधिक प्यारा होता हैं।" दूसरी कहावत हैं "सास की तो मिट्टी की मूरत भी बुरी लगती हैं।" दरअसल इन सब बातों में भूतकाल का भविष्य से संतुलन बनाने में वर्तमान की  दुर्दशा हैं।  सास के ज़माने में मिट्टी का चूल्हा और बहु के ज़माने में माइक्रोवेव ओवन जैसे बदलाव तो अपने पिताजी के पोस्टकार्ड का इंतजार करने वाली सास तो दिन में पाँच बार वीडियो कॉल और चेटिंग करने वाली बहु का अंतर पाटना वर्तमान पीढ़ी के लिए सहज सामान्य बात नहीं। 


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हमारे ज़माने में 
आपके गुजरे ज़माने के कल को आप अपने आने वाले कल से तुलना करोगे तो वर्तमान का सारा समय का बदलाव नहीं बल्कि उसके साथ बदलने में विकास की गति और वैज्ञानिक आधारों को स्वीकार करना पड़ेगा।  मैंने अपने बचपन में चार धाम की यात्रा पर जाने वालों को यात्रा से पूर्व अपनी जीवित अवस्था में अपना मृत्युभोज करते देखा हैं।  आज जब सभी समाजों में मृत्युभोज जैसी परम्परायें बंद सी हो गयी हैं।  यही समय का बदलाव हैं।  हमने देश में कई कुरीतियों को बदलते देखा हैं। जो समाज को गर्त में ले जाती थी। 


कई अधुनिकताएँ भी परिवार के लिए घातक हो जाती हैं। मेरे परिचित एक शिक्षित जैन परिवार के युवक का विवाह नगर से 25 कि. मी.  दूर एक ग्रामीण क्षेत्र में तय हुआ।  सगाई हुई सभी खुश थे। उच्च शिक्षित परिवार होने के कारण विवाह की तिथि लगभग छः माह पश्चात् की सभी की सुविधा  अनुसार तय की गई।  युवक और उसकी मंगेतर प्रतिदिन मोबाईल पर चर्चा करने लगे। चर्चा रोज का नियम बन गया था। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का हर दिन सामान नहीं होता हैं। कभी मूड अच्छा तो कभी निराशाजनक भी होता हैं। ऐसे में प्रतिदिन प्यार भरी बातें होना भी संभव नहीं। रिश्ता अधूरा होने के बाद भी हक जताने की स्थिति बनने लगी और गुस्सा, नाराज़गी बातचीत में एक दो दिन दुरी बढ़ते-बढ़ते कब ये सगाई टूटने पर आ गई पता ही नहीं चला।  एक दिन शाम को जब जैन परिवारों में सूर्यास्त पूर्व भोजन की परंपरा में घर में दादाजी भोजन के लिए बैठने ही वाले थे की फोन की घंटी बजी ! फोन उठाने पर "जय जिनेन्द्र" कहने के बाद बताया की "मैं आपकी होने वाली नई  बहु बोल रही हूँ। मुझे आपके घर में रिश्ता पसंद नहीं ! अभी जब मैं शादी करके नहीं आई हूँ और मुझ पर पर दबाव शुरू कर दिया हैं। घर में आने पर क्या होगा।  मेहरबानी करके आप यह रिश्ता टुटा हुआ ही समझिये।" दादाजी को झटका लगा और आधे घंटे पश्चात ह्रदयघात से चल बेस रिश्ते का यह रूप पीढ़ी के अंतर को दर्शाता हैं 



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आज हमारे ज़माने के विषय पर लिखते समय मेरा तात्पर्य यह है कि पीढ़ी के अंतर को दोनों पक्षों को समझना होगा। जीवन में यदि हम समझ कायम रखकर बच्चों को प्रारम्भ से ही ऐसी शिक्षा दे की वह अपने वरिष्ठों की कही गई बात को शिरोधार्य करे।  क्योंकि "माता-पिता या दादा-दादी की बात सुनने वाले पिछड़े लोग होते है", यह सोच ही गलत बात हैं। एक मित्र ने बातचीत में कहा था कि "कभी भी बच्चों से पूछा जाए की किसकी तरह बनना चाहते हो तो वह किसी सलेब्रिटी का नाम लेते हैं जैसे तेंदुलकर, गावस्कर, आमिर, शाहरुख़ या अक्षय परन्तु कोई अपने दादाजी या पिताजी का नाम नहीं लेता हैं। 


Key To Reduce Generation GAP Between Parents And Kids - lovingparents
हमारे ज़माने में 
जमाना किसी का भी हो हमारे काम, हमारे संस्कार और हमारी जीवन पद्धति ही हमारी पहचान होनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो हमारा जमाना पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा। जैसे प्यार हमारे जीवन का अंग हैं प्यार कल भी था आज भी हैं और कल भी रहेगा। तभी कहते हैं "लव कल आज और कल" 

الأربعاء، 25 مارس 2020

योग और संघ

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योग और संघ 


अपने जीवन के बाल्यकाल से ही मुझे योग की शिक्षा मिल गई थी।  खेलते-खेलते मित्रों के साथ कब संघ के स्वयंसेवक बने और कब व्यायाम के दौरान योग शिक्षा प्राप्त की पता ही नहीं चला और योग हमारे दैनिक जीवनचर्या का भाग बन गया। 




विगत कुछ वर्षों से बाबा रामदेव ने योग एवं स्वदेशी को मिशन बनाकर जनता के सामने रखा तो शायद उनकी प्रस्तुति और संघ की सहजता का अंतर समझ आया।  जमाना जिस दिशा में दौड़ रहा हैं उसे समझने के लिए अब सहजता के साथ व्यावसायिक समिश्रण होना आवश्यक हैं।  यह योग जिसे बचपन में करते थे उन्ही में सूर्य नमस्कार, ताड़ासन, तिष्ट  योग के साथ विभिन्न प्रकार के व्यायाम योग में योग क्र. 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8........  के माध्यम से शरीर में ऊर्जा का संचार तो विभिन्न खेलों के माध्यम से जिसमें स्वयंसेवकों का घेरा बनाकर एक स्वयं सेवक द्वारा राम -राम बोलते हुए साँस न टूटने देने वाले खेल के माध्यम से श्वशन क्रिया पर नियंत्रण ह्रदय की शक्ति का विस्तार हो इसी प्रकार शतरंज वाले खेल के माध्यम से मस्तिष्क का विकास  हमने बचपन से सीखा हैं। 




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योग और संघ 

योग जीवन में अनुशासन, आध्यत्म, जीवन का विस्तृत विकास एवं ऊर्जा के संचार का माध्यम हैं। बालयकाल से योग शिक्षा एक ज़माने में गुरुकुल पद्धति की शिक्षा में दी जाती थी। प्रातः काल समय पर उठना एवं दिनभर की समस्त कार्य पद्धति को एक समयबद्ध प्रक्रिया में पूर्ण करते हुए समय पर रात्रि विश्राम करने से मनुष्य का वर्तमान एवं भविष्य दोनों उज्जवल हो जाते हैं। आज की युवा पीढ़ी में आधुनिकता के साथ आध्यात्म के मार्ग का जुड़ाव सिर्फ संघ जैसे संगठनों से जुड़कर ही संभव हैं। राष्ट्र भक्ति का हिन्दू समाज की समरसता का या विपत्ति के समय मन में दया भाव उत्पन्न हो ऐसी सोच मात्र संघ जैसे विचारो से जुड़कर ही संभव हैं। 




योग यानि जुड़ना, योग यानि सूरत, योग यानि सिद्धांत इन सब पर व्यक्ति को एक साथ अमल करना चाहिए। 



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भारतीय जीवन मूल्यों में योग एक शिक्षा योग एक दर्शन एक जीवन पद्धति जो मानव से मानव को जोड़ने वाली हो बताया गया हैं। संघ और उसके अनुसांगिक संघठनो की स्थापना का मूल तत्व यही हैं कि व्यक्ति व्यक्ति में जगे राष्ट्र प्रेम की भावना और यही भावना देश को विश्व गुरु के स्थान पर काबिज करेगी।

योग के चार प्रकार हैं - राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग। समय समय पर हम इसका पूर्ण विवरण भी आपके सम्मुख रखेंगे परन्तु आज जब संघ और योग का साथ में विवरण करते हैं तो पाते हैं आज जब देश में अधिकांश लोगों के मन में संघ को लेकर यह धारणा हैं की यह भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से अपने पूर्व प्रचारक को माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी के रूप में देश का प्रधानमंत्री बनाकर राजनीति करता हैं तब यह जानना भी आवश्यक हैं कि मोदी जी का सफल प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करना उनकी प्रतिदिन की जीवनचर्या उनकी बेहतरीन जीवनचर्या और नीतिगत फैसले लेते समय उनकी निर्णय क्षमता में दैनिक योग नहीं बल्कि संघ के संस्कारों का योग हैं। एक अनुशासित स्वयंसेवक के रूप में स्वामी विवेकानन्द को आराध्य मानकर जो कार्य करते हैं। 


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योग और संघ 

 मोदी जी स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित हैं। मनुष्य के जीवन में बचपन से केंद्रित मानसिकता ही बड़ा असर करती हैं। आज देश सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित कर रहा हैं, तो उसमें लक्ष्य केंद्रित कार्य चित्त का प्रभाव विभिन्न परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता का विकास आदि कई बातें महत्वपूर्ण होती हैं। 

योग करने वाला व्यक्ति सदैव प्रसन्नचित्त होता हैं। नियमित योगाभ्यास रोगों से लड़ने कि क्षमता में वृद्धि करता हैं। नकारात्मक विचार एवं तनाव से मुक्त रहता हैं। 


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योग और संघ 
संघ के स्वयंसेवक और योग के विद्यार्थी के रूप में मैं इतना ही कहूँगा मेरे जीवन में दो ही योग हैं।  संघ और राष्ट्र प्रेम मैंने दोनों ही मार्ग अपनाकर जीवन को सुचारू चलाना सीखा। जीवन में किसी को भी सबकुछ हांसिल नहीं होता परन्तु बहुत कुछ प्राप्ति के लिए जीवन के मार्ग और मार्ग पर चलने वाले पथिकों के उत्तम साथ ही आवश्यकता होती हैं। 

आज यह लिखते समय मैं गुडी पड़वा नवसंवत्सर के  पावन पर्व पर सभी को शुभकामनायें प्रेषित करता हूँ।  आज ही के दिन संघ की स्थापना परमपूज्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने की थी।  उन्हें आद्य सरसंघचालक प्रणाम करता हूँ। मेरे जीवन पथ को संघ मार्ग से जुड़ने का अवसर मिला तथा जीवन में विभिन्न खेलों और योगिक क्रियाओं के माध्यम से मुझे जो ज्ञान और आध्यात्म की शिक्षा मिली हैं। अवसर मिला तो राष्ट्र प्रेम और संघ के लिए न्योछावर कर दूँगा। 




संघ और योग सिर्फ योग नहीं ईश्वरीय योग हैं जो मानव को ईश्वर से रूबरू करता हैं। 





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योग और संघ 


संस्कारों की खान हैं, जीवन का अरमान हैं। 
स्वयंसेवक का जीवन तों बस अनुशासन का प्रमाण हैं।

खेल-खेल में सीख जाते, शिक्षा, धर्म और ज्ञान हैं। 
भाईचारा, त्यागी जीवन देश प्रेम बलवान हैं 

संघ योग का मिश्रण तो भारत देश की शान हैं। 
अटल बिहारी और मोदी जी का शासन ही प्रमाण हैं। 

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