हमारे ज़माने में |
आज एक नए विषय पर लिखने का विचार मन में जागृत हुआ ! बचपन से आज तक सुनता आया हूँ "हमारे ज़माने में" यह वाक्य अक्सर एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी से कहती हैं। पीढ़ी का अंतर समय के बदलाव के साथ होता हैं और उस अंतर को स्वीकार करने का मन किसी का नहीं होता हैं। नई पीढ़ी अपने वरिष्ठों की बात को नहीं स्वीकार करती तो पुरानी पीढ़ी नए संस्कारों को कभी "आवारगर्दी" तो कभी "एक्स्ट्रा आर्डिनरी" कह कर माजक उड़ाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इस अंतर को स्वीकार करने के लिए बड़ा मन रखना होगा।
आज़ादी के पश्चात भारतीय संस्कारों में शिक्षा पद्धति में जीवन जीने की पद्धति में बड़ा बदलाव आया हैं। कम्प्यूटर शिक्षा, विज्ञानं की प्रगति, चिकित्सा पद्धिति में बदलाव को तो स्वीकार करते हैं परन्तु वस्त्रों की आधुनिकता, मोबाईल चलाने जैसे कामों को घर के बुजुर्ग स्वीकार नहीं कर पाते। मीठा-मीठा गपगप और कड़वा-कड़वा थूं -थूं करने वाली यह बात स्वीकार नहीं हो पाती हैं।
हमारे ज़माने में |
मैंने अपनों से बड़ों का सम्मान उनके विचारों को अपनाकर करने का प्रयत्न किया परन्तु धीरे-धीरे यह महसूस होने लगता हैं कि आप जब किसी अन्य पीसी के विचारों को स्वीकार करने का प्रयत्न करते हैं तो आप से उस पीढ़ी की अपेक्षाएं बढ़ने लगती और आप चाहे उनकी बात का विरोध करते हो तो या तो पुरातन या आधुनिक की बात आप पर थोपी जाती हैं।
घर में नई बहु का आगमन कई विसंगतियां लेकर आता हैं। कहते हैं "मूल से ब्याज अधिक प्यारा होता हैं।" दूसरी कहावत हैं "सास की तो मिट्टी की मूरत भी बुरी लगती हैं।" दरअसल इन सब बातों में भूतकाल का भविष्य से संतुलन बनाने में वर्तमान की दुर्दशा हैं। सास के ज़माने में मिट्टी का चूल्हा और बहु के ज़माने में माइक्रोवेव ओवन जैसे बदलाव तो अपने पिताजी के पोस्टकार्ड का इंतजार करने वाली सास तो दिन में पाँच बार वीडियो कॉल और चेटिंग करने वाली बहु का अंतर पाटना वर्तमान पीढ़ी के लिए सहज सामान्य बात नहीं।
हमारे ज़माने में |
कई अधुनिकताएँ भी परिवार के लिए घातक हो जाती हैं। मेरे परिचित एक शिक्षित जैन परिवार के युवक का विवाह नगर से 25 कि. मी. दूर एक ग्रामीण क्षेत्र में तय हुआ। सगाई हुई सभी खुश थे। उच्च शिक्षित परिवार होने के कारण विवाह की तिथि लगभग छः माह पश्चात् की सभी की सुविधा अनुसार तय की गई। युवक और उसकी मंगेतर प्रतिदिन मोबाईल पर चर्चा करने लगे। चर्चा रोज का नियम बन गया था। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का हर दिन सामान नहीं होता हैं। कभी मूड अच्छा तो कभी निराशाजनक भी होता हैं। ऐसे में प्रतिदिन प्यार भरी बातें होना भी संभव नहीं। रिश्ता अधूरा होने के बाद भी हक जताने की स्थिति बनने लगी और गुस्सा, नाराज़गी बातचीत में एक दो दिन दुरी बढ़ते-बढ़ते कब ये सगाई टूटने पर आ गई पता ही नहीं चला। एक दिन शाम को जब जैन परिवारों में सूर्यास्त पूर्व भोजन की परंपरा में घर में दादाजी भोजन के लिए बैठने ही वाले थे की फोन की घंटी बजी ! फोन उठाने पर "जय जिनेन्द्र" कहने के बाद बताया की "मैं आपकी होने वाली नई बहु बोल रही हूँ। मुझे आपके घर में रिश्ता पसंद नहीं ! अभी जब मैं शादी करके नहीं आई हूँ और मुझ पर पर दबाव शुरू कर दिया हैं। घर में आने पर क्या होगा। मेहरबानी करके आप यह रिश्ता टुटा हुआ ही समझिये।" दादाजी को झटका लगा और आधे घंटे पश्चात ह्रदयघात से चल बेस रिश्ते का यह रूप पीढ़ी के अंतर को दर्शाता हैं
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आज हमारे ज़माने के विषय पर लिखते समय मेरा तात्पर्य यह है कि पीढ़ी के अंतर को दोनों पक्षों को समझना होगा। जीवन में यदि हम समझ कायम रखकर बच्चों को प्रारम्भ से ही ऐसी शिक्षा दे की वह अपने वरिष्ठों की कही गई बात को शिरोधार्य करे। क्योंकि "माता-पिता या दादा-दादी की बात सुनने वाले पिछड़े लोग होते है", यह सोच ही गलत बात हैं। एक मित्र ने बातचीत में कहा था कि "कभी भी बच्चों से पूछा जाए की किसकी तरह बनना चाहते हो तो वह किसी सलेब्रिटी का नाम लेते हैं जैसे तेंदुलकर, गावस्कर, आमिर, शाहरुख़ या अक्षय परन्तु कोई अपने दादाजी या पिताजी का नाम नहीं लेता हैं।
जमाना किसी का भी हो हमारे काम, हमारे संस्कार और हमारी जीवन पद्धति ही हमारी पहचान होनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो हमारा जमाना पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा। जैसे प्यार हमारे जीवन का अंग हैं प्यार कल भी था आज भी हैं और कल भी रहेगा। तभी कहते हैं "लव कल आज और कल"
हमारे ज़माने में |
सही बात है
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