नारी के प्रति बदलाव जरुरी |
भारतीय लोकतंत्र भारतीय चिंतन, धर्म, सामाजिक मूल्यों, परम्पराओं, सम्मान और स्वाभिमान लिए जाना जाता है। विगत कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति ने देश को शर्मसार किया हैं। भाषा की सुचिता समाप्त हो रही हैं। जाति, धर्म, भ्रष्टाचार, दुराचार यह चुनावी राजनीती में आने लगे तब तक जनता समझ नहीं पाई जी इसका अंत कहाँ हो ये कब तक बढ़ता रहेगा। सामान्य बातचीत में हम कहते हैं कि राजनीति बहुत बुरी जगह हैं। घर से निकलकर समाज के लिए कुछ करने का जज्बा है तो हमें राजनीति को छोड़कर सोचना चाहिए परन्तु दूसरी ओर यह भी कहते है कि जब तक अच्छे लोग राजनीति में नहीं आयेंगे। राजनीति स्वच्छ कैसे होगी।
महत्वकांक्षा के इस युग में सत्ताधारी दल के इर्द-गिर्द महिलाओं का आना ओर शॉर्टकट से ऊपर पहुंचने की होड़ में राजनीति की गंदगी को सडकों पर लाकर खड़ा किया हैं। सोशल मिडिया के इस युग में मिनटों में आपके चित्र वीडियो और समस्त अश्लीलताएं समाज के बीच होती हैं। सबको लगता हैं राजनीति एक ऐसा माध्यम हैं जो सम्मान और सम्पदा दोनों देगा और शायद देता भी हैं परन्तु क्या सम्पूर्ण राजनीति गलत दिशा की ओर ही जा रही है। पता नहीं विचारणीय प्रश्न है !
नारी के प्रति बदलाव जरुरी |
तीन तलाक़ बिल पास हुआ।
तीन तलाक़ बिल पास हुआ महिलाओं के संरक्षण और उन्हें हलाला जैसी जिल्लत भरी जिंदगी से मुक्ति के लिए प्रयासों को सराहा जाना चाहिए। इस्लाम और इस्लामियत के नाम पर चार-छः बच्चे पैदा करके शौहर दूसरी बीवी तो कभी तीसरी बीवी ले आता था। जिस समाज में औरत को उपभोग की वास्तु समझा जाता है ऐसे वहशी समाज में यह बिल एक ऐतिहासिक पहल सिद्ध होगा औरत सिर्फ घर सजाने की नहीं धर्म, संस्कार और एक ही जगह दो घरों का सम्मान बढ़ाने वाली संस्था हैं। हम आज जब नारी समाज की बात करते हैं तो सिर्फ मुस्लिम समाज से ही जोड़कर देखा जाना उचित नहीं किसी भी धर्म मजहब और समाज में स्त्री सम्मान की महत्ता बहुत आवश्यक होती है। आज हम तलाक़ और हलाला से मुक्ति और इसे आपराधिक श्रेणी में लेकर महिलाओं के सम्मान में इज़ाफ़ा कर रहे हैं।
नारी के प्रति बदलाव जरुरी |
संसद भी अछूती नहीं।
भाषा की सुचिता से देश की संसद भी शेष नहीं रही है। जिसके मन और वाणी में जो विचार आ रहे है, वह उदगार प्रकट कर रहा है। वर्तमान में आज़म खाँ की टिप्पणी ने लोकसभा में हंगामा कर रखा हैं। जाति, धर्म,समुदाय और नारी सम्मान के विषय पर जन प्रतिनिधियों को तो कम से कम भाषा एवं विचारों पर नियंत्रण करना ही चाहिए। यदि महिलाये अपने घर से निकलकर देश, समाज के लिए कुछ करना चाहे तो उन्हें एक सम्मानपूर्ण आधार मिलना ही चाहिए। समाज में स्त्रियों को आज भी हीन भावना से देखा जा रहा हैं।
पत्नी पर पति भारी हर जगह
महिला सशक्तिकरण की दिशा में हम समाज को कितना भी आगे बढ़ाये, निचलें स्तर तक सुधार में लगभग २० वर्ष और बीत जायेंगे। सरपंच, जनपद, जिला पंचायतों, मंडी अध्यक्षों के लिए सीट आरक्षित कर महिलाओं को समाज तो चुन लेता मगर उनके पति सम्पूर्ण व्यवस्था का संचालन करते हैं। स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त करने वाली महिलाओं के पतियों के हाथों में ही मैंने सत्ता की चाबी देखी हैं। जब कोई पति अपनी पत्नी के प्रगति के मार्ग को सहजता से नहीं देखता तो स्वच्छ रूप से निर्णय लेकर नारियाँ कब समाज में अपना स्थान बनाएगी। इतिहास में कई ऐसे उदाहरण है जिसमें पुरुषों से अधिक महिलाओं ने काम को बेहतर अंजाम दिया हैं, परन्तु पुरुष मानसिकता का यह समाज अभी परिपक़्व नहीं हैं। एक दो गलत स्त्रियों के कारण सम्पूर्ण स्त्री वर्ग को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता हैं। आज़ादी सभी का मौलिक अधिकार है और उसका सम्मान किया जाना चाहिए।
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स्त्री शिक्षा पर बल
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बदलाव के इस दौर में स्त्री शिक्षा के सन्दर्भ में समाज में जागरूकता बढ़ी हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में इसका असर नज़र आने लगा हैं। शिक्षा से समाज का बदलाव होगा ऐसा भी सोचना १००% उचित नहीं। दरअसल आधुनिकता का एक अजीब रूप सामने आ रहा हैं जो बातें विचारों के माध्यम से बदलाव का कारन होना चाहिए वही बनते मात्र मोबाईल, कपड़ो, वाहनों के संचालन तक सिमित रह गई है। आधुनिकता का तात्पर्य हम मानसिकता से बदलना चाहते है, मगर महिलाओं को लेकर समाज की मानसिकता आज भी जस की तस हैं।
विशाल हृदय की आवश्यकता
सम्पूर्ण समाज को महिलाओं को लेकर विशाल हृदय, भरोसेमंद व्यव्हार एवं सम्बल की जरुरत लगती हैं। औरत यानि बेचारी, अबला कमजोर नहीं बल्कि नौ माह तक कोख में रख जन्म देने वाली माँ से लेकर अंग्रेजों से मुकाबला करने वाली झाँसी की रानी तक है। संसद में आज तक महिला आरक्षण बिल पास नहीं हो पाया। मुस्लिम समाज तीन तलाक़ और हलाला जैसे मुद्दे पर घिरा हैं वहीं ईसाई समाज भी ननों के मसले पर कटघरे में हैं। नारी उपभोग की वास्तु नहीं हमारी जन्मदात्री हैं। हम अपनी पुरुष प्रधान मानसिकता से बहार नहीं आ पा रहे है। कई समाजों में पर्दा प्रथा अब भी जारी है। दहेज़ के मुक़दमे आज भी दर्ज हो रहे है। अपमान का यह दंश मातृशक्ति को कब तक झेलना पड़ेगा ? चिंतन का विषय हैं।
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लक्ष्मी हो तुम, तुम ही हो सरस्वती !
माता यशोदा हो, तुम्ही हो धर्मिणी !!
नाज़ है तुमपे, शान है तुझसे !
हम सबके अरमान है तुमसे !!
माता यशोदा हो, तुम्ही हो धर्मिणी !!
नाज़ है तुमपे, शान है तुझसे !
हम सबके अरमान है तुमसे !!