बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते |
माँ के गर्भ में नौ माह तक रहने वाला पुत्र यदि अपनी माता को अलग कर दे तो जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती हैं। आपके जन्म से नौ माह पूर्व आपका नाम, आपका स्वरूप, आपके सम्पूर्ण गौरवशाली जीवन के लिए बोझ बन जाय तो यह समाज के गिरते स्तर को दर्शाता हैं। वर्तमान समय में घटते संयुक्त परिवार समाज का एक नया आईना दिखता हैं। अपने जीवन काल का अधिकांश समय व्यक्ति इस उम्मीद में बिताता हैं कि यदि मेरे बच्चे जीवन में कुछ बन गए तो मेरा नाम भी रोशन करेंगे और मेरे जीवन काल का उत्तरार्ध भी सार्थक हो जायेगा।
भगवान राम की तरह पिता की आज्ञा का पालन कर 14 बरस के वनवास पर निकल जाय हम यह अपेक्षा नहीं करते परन्तु सामान्य रूप से अपने माता-पिता के देखभाल का जिम्मा स्वयं के कन्धों पर न लेकर उन्हें एकांत या दुर्दशा की ओर मोड़ देने वाली संतान से निःसंतान होना क्या बुरा हैं। कम से कम समाज के सामने अपने संस्कारों के लिए तो लज्जित नहीं होना पड़ेगा। कई पुत्र-पुत्रियों की मजबूरी हो जाती हैं माता-पिता को अकेला छोड़ना मगर समाज में उन लोगों को देखता हूँ जो एक ही शहर में रहकर भी विघटन की दिशा में प्रवृत हो रहे हैं।
वेदों में जब संस्कारों की बात आती हैं तो नामकरण संस्कार से लेकर पाणिग्रहण संस्कार अर्थात विवाह तक के संस्कार तो व्यक्ति अपने माता-पिता के चरणों में ही करता हैं फिर अचानक जीवन में क्या विपत्ति आ जाती हैं कि व्यक्ति अपने जीवन दाता को ही भूलने लग जाता हैं। समाज को इन सभी विषयों पर चिंतन की आवश्यकता हैं।
समाज में अपना आदर्श स्थापित करने वाले उच्च वर्ग में इन दिनों यह बातें मुझे बहुत चिंताजनक लगती हैं। संयुक्त परिवारों के विघटन का मुख्य कारण मुझे जिंदगी जीने की आजादी लगता हैं। पति, पत्नी और बच्चे यह छोटा-सा घटक न कोई रोकने वाला न कोई डांटने वाला विवाह के कुछ वर्षों तक यह आजादी बेहतर लगती हैं परन्तु संयुक्त परिवार में तीन पीढ़ियों के संगम से बच्चों को जो संस्कार रूपी पूंजी मिलती हैं उससे व्यक्ति मालामाल हो जाता हैं
बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते |
मैं और मेरा परिवार यह छोटी सी इकाई में जिम्मेदारियां कम नहीं अधिक होती हैं जबकि संयुक्त परिवार में बच्चे सबके मध्य कब बड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता।
एक उच्चवर्गीय समाज में एक परिवार जिसमें मुखिया के पास बड़ी संपत्ति चार पुत्र, तीन बहुएं जिनके विवाह संपन्न हो गए थे। ग्रामीण जीवन से शहरी वातावरण की ओर धीरे-धीरे पलायन शुरू हुआ और विघटन प्रारम्भ हो गया। पहले एक बेटा-बहु शहर आये फिर स्वयं का घर हो कहकर सास-ससुर और एक देवर शहर आये। धीरे-धीरे प्रयासों से कुंवारे देवर की शादी हो गई। अब भरापूरा परिवार हो गया। पैसे की कमी नहीं परन्तु अहंकार और आज़ादी की मांग ने विघटन कर दिया वो भी ऐसा की आज चारों पुत्रों के घर अलग-अलग और माता-पिता का अलग अपनी गृहस्थी चला रहे हैं। मैं समझ नहीं पाया किसे दोष दूँ , मेरा अधिकार भी नहीं परन्तु जब समाज में परिवारों के बिखराव का मुल्यांकन करता हूँ तो पाता हूँ कि दोष किसी एक व्यक्ति का नहीं सम्पूर्ण समाज का हैं। हमने अपने जीवन को पाश्चात्य संस्कारों की ओर इतना धकेल दिया की हमें अपने संस्कार बौने लगने लगे। आधुनिकता आपको यह नहीं सिखाती की आप अपनी जिंदगी को एक उपयुक्त माहौल में बिताने के चक्कर में एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से अलग कर दो।
पिछले दिनों में मैंने अमिताभ बच्चन जी और हेमा मालिनी जी की फिल्म बागबान देखी थी। बच्चे अपनी स्वयं की सफलता में अपने पलकों का योगदान भूल ही जाते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए की उनकी सफलताओं के पीछे उनके माता-पिता क्या योगदान हैं ?
इस सम्पूर्ण विषय का एक हिस्सा पत्नी यानि बहु का भी बड़ा होता हैं। व्यक्ति जीवन में विवाह की पश्चात कभी-कभी ऐसे पायदान पर खड़ा हो जाता हैं कि उसे अपनी पति और माता-पिता में से किसी एक के चयन की स्थिति सामने आ जाए तो कई बार स्वयं माता-पिता अपने पुत्र से कह देते हैं कि "हमारा जीवन शेष ही कितना हैं तुम अपनी पत्नी के साथ व्यवस्थित जीवन बिताओं।
बेटी को विदा करते समय क्या संस्कार देकर ससुराल भेज रहे है यह भी एक महत्वपूर्ण बात हैं। मेरी बेटी अलग रहे, उसे सम्पत्ति के सारे अधिकार मिले, पति उसकी सभी बातें माने परन्तु सास-ससुर, देवर-ननद का झंझट नहीं। नौकरी वाला लड़का मिल जाय ताकि दूसरी जगह ट्रांसफर करा कर निश्चित जिंदगी का निर्वाहन किया का सके।
पिछले दिनों में मैंने अमिताभ बच्चन जी और हेमा मालिनी जी की फिल्म बागबान देखी थी। बच्चे अपनी स्वयं की सफलता में अपने पलकों का योगदान भूल ही जाते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए की उनकी सफलताओं के पीछे उनके माता-पिता क्या योगदान हैं ?
इस सम्पूर्ण विषय का एक हिस्सा पत्नी यानि बहु का भी बड़ा होता हैं। व्यक्ति जीवन में विवाह की पश्चात कभी-कभी ऐसे पायदान पर खड़ा हो जाता हैं कि उसे अपनी पति और माता-पिता में से किसी एक के चयन की स्थिति सामने आ जाए तो कई बार स्वयं माता-पिता अपने पुत्र से कह देते हैं कि "हमारा जीवन शेष ही कितना हैं तुम अपनी पत्नी के साथ व्यवस्थित जीवन बिताओं।
बेटी को विदा करते समय क्या संस्कार देकर ससुराल भेज रहे है यह भी एक महत्वपूर्ण बात हैं। मेरी बेटी अलग रहे, उसे सम्पत्ति के सारे अधिकार मिले, पति उसकी सभी बातें माने परन्तु सास-ससुर, देवर-ननद का झंझट नहीं। नौकरी वाला लड़का मिल जाय ताकि दूसरी जगह ट्रांसफर करा कर निश्चित जिंदगी का निर्वाहन किया का सके।
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एक पक्ष और होता हैं वही माता और उनकी बेटी सोचती हैं कि हमारी बहु ऐसी हो जो साक्षात लक्ष्मी हो, घर को व्यवस्थित संभाल सके, सभी आने जाने वालों का सत्कार करें, सयुंक्त परिवार में रहकर सभी रिश्तों की मर्यादा को पूरा करें। जो मापदंड हम बेटी की लिए करते हैं, वही बहु के लिए नहीं करते।
समाज में बहु और बेटी का यही अंतर बड़ा कारण हैं, परिवारों के विघटन का जीवन की सार्थकता का प्रश्न परिवार का साथ रहना, साथ भोजन बनाना नहीं हैं। रिश्तों में एक-दूसरे के प्रति लगाव और समाज में आपका परिवार एक आदर्श स्थापित करें, ऐसे परिवार में जिस शहर में रहता हूँ वहां भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं।
एक ओर विषय परिस्थिति समाज के सामने हैं - एक ही बेटा हो और वह शहर या विदेश चला जाय नौकरी की खातिर। ऐसे में शहरों के छोटे घर या विदेशों में माता-पिता को ले जाना संभव नहीं कर सकतें कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता हैं।
बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते |
मेरा विचार हैं समाज में इन विषयों पर खुलकर चर्चा-परिचर्चा संवाद की आवश्यकता हैं। लोक-लाज और समाज के सामने अपनी बात न कह पाने की घुटन भी व्यक्ति को अवसाद मार्ग की ओर ले जाती हैं।
कहते हैं "जहाँ चार बर्तन हो टकराने की आवाज़ आती ही हैं।" अब यह बात सिर्फ कहावतों में सिमट गई हैं। घायल का दर्द घायल ही जनता हैं। सब एक दूसरे के दुःख से वाकिफ हैं मगर दवा कोई नहीं ढूँढ रहा हैं।
दवा हमारे अपने अंदर ही हैं। मेरे पिछले ब्लॉग "हमारे ज़माने में" में मैंने पीढ़ी अंतर की बात कही थी, वह भी इन परिस्थितियों में लागु होती हैं।
हमें समय के साथ चलना होगा। जीवन की इस परिवार रूपी संस्था में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं हैं। कोई भी आ रहा हैं, कोई भी जा रहा हैं ?
दवा हमारे अपने अंदर ही हैं। मेरे पिछले ब्लॉग "हमारे ज़माने में" में मैंने पीढ़ी अंतर की बात कही थी, वह भी इन परिस्थितियों में लागु होती हैं।
हमें समय के साथ चलना होगा। जीवन की इस परिवार रूपी संस्था में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं हैं। कोई भी आ रहा हैं, कोई भी जा रहा हैं ?
टूट रही हैं कड़ियाँ, बिखर रहा हैं आँगन।
सुना हैं गलियारा, याद आ रहा हैं बचपन।।
नानी की कहानियाँ, दादी की लोरियां।
चाचा का प्यार, दादाजी की फटकार।।
दस पैसे का सिक्का, ढेर सारी गोलियाँ।
ढूंढ रहा हूँ मैं, ढूंढ़ रहा हूँ मैं।।
वर्तमान जीवन की कड़वी सच्चाई
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