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श्री सुखानंद तीर्थ |
राजस्थान और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित पर्वत श्रेणियों में " श्री सुखानंद तीर्थ " एक बहुत ही रमणीय स्थान हैं। यह जावद नगर से लगभग १३ किलोमीटर दूर हैं। यहाँ पहाड़ियां कोण बनाती हुई स्थिति में हैं। यहाँ का प्राकृतिक दृश्य बहुत ही मनोरम है जो हजारों सैलानियों को प्रतिवर्ष आकर्षित करता हैं।
राजा आनदपाल द्वारा विक्रम सम्वत ५ में ( ५२ ईस्वी पूर्व ) इस स्थान की खोज की गई।
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सुख और आनंद का रमणीय स्थल " श्री सुखानंद तीर्थ " |
उज्जयिनी ( उज्जैन ) से लेकर शिवलिङ्ग ग्राम तक विस्तीर्ण भू-भाग " शिवभूमि " हैं, जहाँ हजारों शिव मंदिर बने हुए है। इस भाग में प्रसिद्ध स्थल है - उज्जयिनी में महाकाल, दशपुर ( मंदसौर ) में पशुपतिनाथ, अरनोद (प्रतापगढ़) में गौतमनाथ, बांसवाड़ा अरथूना एवं त्रिपुर सुंदरी, चित्तौड़ के किले की शिव प्रतिमा एकलिंग जी में एकलिंग जी का प्राचीन देवालय इनके अतिरिक्त अन्य अनेक पवित्र और आकर्षक स्थान हैं।
श्री सुखानंद तीर्थ - उन्ही में से एक पावन तीर्थ है जो श्री शुकदेव मुनि को तपश्चर्या से स्वयं तीर्थ रूप था। यह स्थान सुन्दर रमणीय पहाड़ों और चन्दन वन के बीच हैं। चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा दृश्य आगंतुकों को प्रफुल्ल कर नई स्फूर्ति देता हैं। जगत प्रसिद्ध श्री वेदव्यास पुत्र महामुनि श्री शुकदेव ने इस स्थान की रमणीयता एवं शांत वायुमंडल से प्रसन्न होकर यहाँ पर तपस्चर्या की थी तब से ही यह स्थान एक महान तीर्थ बन गया हैं।
यहाँ के पर्वतीय गर्भ भाग से अविरल प्रवाहिन होने वाली गंगा श्री शुकदेवमुनि द्वारा लाई गई, उनकी तप सिद्धि का फल हैं। जो " शौकी गंगा " के नाम से प्रचिलित हैं। यह स्थान ऊँची पहाड़ियों के मध्य में स्थित हैं, जहाँ सीढ़ियों की लम्बी क़तार चढ़कर पहुंचना होता है। यहाँ के झरनों से १९ मीटर ( लगभग ६१ फ़ीट ) की ऊंचाई से बारहों महीने पानी गिरता हैं। अपने मृतक परिजनो का अस्थि प्रवेश करने के लिए दूर-दूर के अनेकों शृद्धालु जन भी यहाँ बहुत मात्रा में आते हैं।
विक्रम सम्वत् १७२४ (सन् १६६६ ई. ) में जब छत्रपति शिवजी औरंगजेब की कैद आगरा से दि. २९ अगस्त १६६६ ई. को गायब होकर दक्षिण भारत गए तब कहते है वे महापुरुष इस स्थान पर ठहरकर गए थे।
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महामुनि श्री शुकदेव |
विक्रम की ग्यारवहीं शताब्दी में दसनाम तिलक महान संत श्री बालगिरिजी महाराज ने यहाँ मठ-मंदिर आदि निर्माण कराकर प्राकृतिक-शिवलिंग तथा अपनी आचार्य परंपरा के सप्तम आचार्य श्री शुकदेव मुनि प्रतिष्ठा मिटी श्रावण शुक्ल ५ सोमवार ११६५ वि. को करवाकर इस तीर्थ को मूर्त रूप दिया जो आज जीर्ण-शीर्ण दशा में अवस्थित होकर भी प्रसिद्धि को प्राप्त है।
मन्दिर निर्माण कार्य प्रारम्भ ११६२ विक्रमी ( सन् ११०५ ई. ) में हुआ तथा सम्वत ११७२ विक्रमी ( सन् १११५ ई. ) में पूर्ण हुआ।
सौजन्य से :- श्री मनोहरदास अग्रवाल ( श्री सुखानंद तीर्थ परिचय पुस्तक के संपादक )
अदभुत रमणीय स्थल ॐ नमः शिवाय
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