मंगलवार, 31 मार्च 2020

बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते

बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते 

माँ के गर्भ में नौ माह तक रहने वाला पुत्र यदि अपनी माता को अलग कर दे तो जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती हैं। आपके जन्म से नौ माह पूर्व आपका नाम, आपका स्वरूप, आपके सम्पूर्ण गौरवशाली जीवन के लिए बोझ बन जाय तो यह समाज के गिरते स्तर को दर्शाता हैं। वर्तमान समय में घटते संयुक्त परिवार समाज का एक नया आईना दिखता हैं। अपने जीवन काल का अधिकांश समय व्यक्ति इस उम्मीद में बिताता हैं कि यदि मेरे बच्चे जीवन में कुछ बन गए तो मेरा नाम भी रोशन करेंगे और मेरे जीवन काल का उत्तरार्ध भी सार्थक हो जायेगा।

भगवान राम की तरह पिता की  आज्ञा का पालन कर 14 बरस के वनवास पर निकल जाय हम यह अपेक्षा नहीं करते परन्तु सामान्य रूप से अपने माता-पिता के देखभाल का जिम्मा स्वयं के कन्धों पर न लेकर उन्हें एकांत या दुर्दशा की ओर मोड़ देने वाली संतान से निःसंतान होना क्या बुरा हैं। कम से कम समाज के सामने अपने संस्कारों के लिए तो लज्जित नहीं होना पड़ेगा। कई पुत्र-पुत्रियों की मजबूरी हो जाती हैं माता-पिता को अकेला छोड़ना मगर समाज में उन लोगों को देखता हूँ जो एक ही शहर में रहकर भी विघटन की दिशा में प्रवृत हो रहे हैं। 






वेदों में जब संस्कारों की बात आती हैं तो नामकरण संस्कार से लेकर पाणिग्रहण संस्कार अर्थात विवाह तक के संस्कार तो व्यक्ति अपने माता-पिता के चरणों में ही करता हैं फिर अचानक जीवन में क्या विपत्ति आ जाती हैं कि व्यक्ति अपने जीवन दाता को ही भूलने लग जाता हैं। समाज को इन सभी विषयों पर चिंतन की आवश्यकता हैं। 

समाज में अपना आदर्श स्थापित करने वाले उच्च वर्ग में इन दिनों यह बातें मुझे बहुत चिंताजनक लगती हैं। संयुक्त परिवारों के विघटन का मुख्य कारण मुझे जिंदगी जीने की आजादी लगता हैं। पति, पत्नी और बच्चे यह छोटा-सा घटक न कोई रोकने वाला न कोई डांटने वाला विवाह के कुछ वर्षों तक यह आजादी बेहतर लगती हैं परन्तु संयुक्त परिवार में तीन पीढ़ियों के संगम से बच्चों को जो संस्कार रूपी पूंजी मिलती हैं उससे व्यक्ति मालामाल हो जाता हैं 


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बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते  

मैं और मेरा परिवार यह छोटी सी इकाई में जिम्मेदारियां कम नहीं अधिक होती हैं जबकि संयुक्त परिवार में बच्चे सबके मध्य कब बड़े हो जाते  हैं, पता ही नहीं चलता। 

एक उच्चवर्गीय समाज में एक परिवार जिसमें मुखिया के पास बड़ी संपत्ति चार पुत्र, तीन  बहुएं जिनके विवाह संपन्न हो गए थे। ग्रामीण जीवन से शहरी वातावरण की ओर धीरे-धीरे पलायन शुरू हुआ और विघटन प्रारम्भ हो गया। पहले एक बेटा-बहु शहर आये फिर स्वयं का घर हो कहकर सास-ससुर और एक देवर शहर आये। धीरे-धीरे प्रयासों से कुंवारे देवर की शादी हो गई। अब भरापूरा परिवार हो गया। पैसे की कमी नहीं परन्तु अहंकार और आज़ादी की मांग ने विघटन कर दिया वो भी ऐसा की आज चारों पुत्रों के घर अलग-अलग और माता-पिता का अलग अपनी गृहस्थी चला रहे हैं। मैं समझ नहीं पाया किसे दोष दूँ , मेरा अधिकार भी नहीं परन्तु जब समाज में परिवारों के बिखराव का मुल्यांकन करता हूँ तो पाता हूँ कि दोष किसी एक व्यक्ति का नहीं सम्पूर्ण समाज का हैं। हमने अपने जीवन को पाश्चात्य संस्कारों की ओर इतना धकेल दिया की हमें अपने संस्कार बौने लगने लगे। आधुनिकता आपको यह नहीं सिखाती की आप अपनी जिंदगी को एक उपयुक्त माहौल में बिताने के चक्कर में एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से अलग कर दो। 


पिछले दिनों में मैंने अमिताभ बच्चन जी और हेमा मालिनी जी की फिल्म बागबान देखी थी। बच्चे अपनी स्वयं की सफलता में अपने पलकों का योगदान भूल ही जाते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए की उनकी सफलताओं के पीछे उनके माता-पिता  क्या योगदान हैं ?

इस सम्पूर्ण विषय का एक हिस्सा पत्नी यानि बहु का भी बड़ा होता हैं। व्यक्ति जीवन में विवाह की पश्चात कभी-कभी ऐसे पायदान पर खड़ा हो जाता हैं कि उसे अपनी पति और माता-पिता में से किसी एक के चयन की स्थिति सामने आ जाए तो कई बार स्वयं माता-पिता अपने पुत्र से कह देते हैं कि "हमारा जीवन शेष ही कितना हैं तुम अपनी पत्नी के साथ व्यवस्थित जीवन बिताओं। 

बेटी को विदा करते समय क्या संस्कार देकर ससुराल भेज रहे है यह भी एक महत्वपूर्ण बात हैं। मेरी बेटी अलग रहे, उसे सम्पत्ति के सारे अधिकार मिले, पति उसकी सभी बातें माने परन्तु सास-ससुर, देवर-ननद का झंझट नहीं। नौकरी वाला लड़का मिल जाय ताकि दूसरी जगह ट्रांसफर करा कर निश्चित जिंदगी का निर्वाहन किया का सके। 




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एक पक्ष और होता हैं वही माता और उनकी बेटी सोचती हैं कि हमारी बहु ऐसी हो जो साक्षात लक्ष्मी हो, घर को व्यवस्थित संभाल सके, सभी आने जाने वालों का सत्कार करें, सयुंक्त परिवार में रहकर सभी रिश्तों की मर्यादा को पूरा करें। जो मापदंड हम बेटी की लिए करते हैं, वही बहु के लिए नहीं करते। 

समाज में बहु और बेटी का यही अंतर बड़ा कारण हैं, परिवारों के विघटन का जीवन की सार्थकता का प्रश्न परिवार का साथ रहना, साथ भोजन बनाना नहीं हैं। रिश्तों में एक-दूसरे के प्रति लगाव और समाज में आपका परिवार एक आदर्श स्थापित करें, ऐसे परिवार में जिस शहर में रहता हूँ वहां भी उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। 



New program seeks to help lonely seniors in Sooke – Sooke News Mirror
बिखरते परिवार - टूटते रिश्ते  
एक ओर विषय परिस्थिति समाज के सामने हैं - एक ही बेटा हो और वह शहर या विदेश चला जाय नौकरी की खातिर। ऐसे में शहरों के छोटे घर या विदेशों में माता-पिता को ले जाना संभव नहीं कर सकतें कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता हैं। 

मेरा विचार हैं समाज में इन विषयों पर खुलकर चर्चा-परिचर्चा संवाद की आवश्यकता हैं। लोक-लाज और समाज के सामने अपनी बात न कह पाने की घुटन भी व्यक्ति को अवसाद मार्ग की ओर ले जाती हैं। 


कहते हैं  "जहाँ चार बर्तन हो टकराने की आवाज़ आती ही हैं।" अब यह बात सिर्फ कहावतों में सिमट गई हैं। घायल का दर्द घायल ही जनता हैं। सब एक दूसरे के दुःख से वाकिफ हैं मगर दवा कोई नहीं ढूँढ रहा हैं। 

दवा हमारे अपने अंदर ही हैं। मेरे पिछले ब्लॉग "हमारे ज़माने में" में मैंने पीढ़ी अंतर की बात कही थी, वह भी इन परिस्थितियों में लागु होती हैं। 

हमें समय के साथ चलना होगा। जीवन की इस परिवार रूपी संस्था में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं हैं। कोई भी आ रहा हैं, कोई भी जा रहा हैं ?




टूट रही हैं कड़ियाँ, बिखर रहा हैं आँगन। 
सुना हैं गलियारा, याद आ रहा हैं बचपन।
नानी की कहानियाँ, दादी  की लोरियां। 
चाचा का प्यार, दादाजी की फटकार।
दस पैसे का सिक्का, ढेर सारी गोलियाँ। 
ढूंढ रहा हूँ मैं, ढूंढ़ रहा हूँ मैं।

गुरुवार, 26 मार्च 2020

हमारे ज़माने में

हमारे ज़माने में 


आज एक नए विषय पर लिखने का विचार मन में जागृत हुआ ! बचपन से आज तक सुनता आया हूँ "हमारे ज़माने में" यह वाक्य अक्सर एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी से कहती हैं। पीढ़ी का अंतर समय के बदलाव के साथ होता हैं और उस अंतर को स्वीकार करने का मन किसी का नहीं होता हैं। नई पीढ़ी अपने वरिष्ठों की बात को नहीं स्वीकार करती तो पुरानी पीढ़ी नए संस्कारों को कभी "आवारगर्दी" तो कभी "एक्स्ट्रा आर्डिनरी" कह कर माजक उड़ाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इस अंतर को स्वीकार करने के लिए बड़ा मन रखना होगा। 


आज़ादी के पश्चात भारतीय संस्कारों में शिक्षा पद्धति में जीवन जीने की पद्धति में बड़ा बदलाव आया हैं। कम्प्यूटर शिक्षा, विज्ञानं की प्रगति, चिकित्सा पद्धिति में बदलाव को तो स्वीकार करते हैं परन्तु वस्त्रों की आधुनिकता, मोबाईल चलाने जैसे कामों को घर के बुजुर्ग स्वीकार नहीं कर पाते। मीठा-मीठा गपगप और कड़वा-कड़वा थूं -थूं  करने वाली यह बात स्वीकार नहीं हो पाती हैं। 


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हमारे ज़माने में 
मैं वर्तमान में अपनी पीढ़ी को सैंडविच स्थिति में पाता हूँ।  एक ओर मझसे बड़ी पीढ़ी और दूसरी ओर मुझसे छोटी पीढ़ी। मैं दोनों पीढ़ियों के मध्य रहकर हमारे ज़माने में वाली बात कह नहीं सुन जरूर पता हूँ। मैं युवा पीढ़ी  की आधुनिकता को स्वीकार तो करता हूँ, मगर अपने से बड़ी पीढ़ी के संस्कारों के सम्मान को कम भी नहीं आंक सकता हूँ। 

मैंने अपनों से बड़ों का सम्मान उनके विचारों को अपनाकर करने का प्रयत्न किया परन्तु धीरे-धीरे यह महसूस होने लगता हैं कि आप जब किसी अन्य पीसी के विचारों को स्वीकार करने का प्रयत्न करते हैं तो आप से उस पीढ़ी की अपेक्षाएं बढ़ने लगती और आप चाहे उनकी बात का विरोध करते हो तो या तो पुरातन या आधुनिक की बात आप पर थोपी जाती हैं। 

घर में नई बहु का आगमन कई विसंगतियां लेकर आता हैं। कहते हैं "मूल से ब्याज अधिक प्यारा होता हैं।" दूसरी कहावत हैं "सास की तो मिट्टी की मूरत भी बुरी लगती हैं।" दरअसल इन सब बातों में भूतकाल का भविष्य से संतुलन बनाने में वर्तमान की  दुर्दशा हैं।  सास के ज़माने में मिट्टी का चूल्हा और बहु के ज़माने में माइक्रोवेव ओवन जैसे बदलाव तो अपने पिताजी के पोस्टकार्ड का इंतजार करने वाली सास तो दिन में पाँच बार वीडियो कॉल और चेटिंग करने वाली बहु का अंतर पाटना वर्तमान पीढ़ी के लिए सहज सामान्य बात नहीं। 


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हमारे ज़माने में 
आपके गुजरे ज़माने के कल को आप अपने आने वाले कल से तुलना करोगे तो वर्तमान का सारा समय का बदलाव नहीं बल्कि उसके साथ बदलने में विकास की गति और वैज्ञानिक आधारों को स्वीकार करना पड़ेगा।  मैंने अपने बचपन में चार धाम की यात्रा पर जाने वालों को यात्रा से पूर्व अपनी जीवित अवस्था में अपना मृत्युभोज करते देखा हैं।  आज जब सभी समाजों में मृत्युभोज जैसी परम्परायें बंद सी हो गयी हैं।  यही समय का बदलाव हैं।  हमने देश में कई कुरीतियों को बदलते देखा हैं। जो समाज को गर्त में ले जाती थी। 


कई अधुनिकताएँ भी परिवार के लिए घातक हो जाती हैं। मेरे परिचित एक शिक्षित जैन परिवार के युवक का विवाह नगर से 25 कि. मी.  दूर एक ग्रामीण क्षेत्र में तय हुआ।  सगाई हुई सभी खुश थे। उच्च शिक्षित परिवार होने के कारण विवाह की तिथि लगभग छः माह पश्चात् की सभी की सुविधा  अनुसार तय की गई।  युवक और उसकी मंगेतर प्रतिदिन मोबाईल पर चर्चा करने लगे। चर्चा रोज का नियम बन गया था। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का हर दिन सामान नहीं होता हैं। कभी मूड अच्छा तो कभी निराशाजनक भी होता हैं। ऐसे में प्रतिदिन प्यार भरी बातें होना भी संभव नहीं। रिश्ता अधूरा होने के बाद भी हक जताने की स्थिति बनने लगी और गुस्सा, नाराज़गी बातचीत में एक दो दिन दुरी बढ़ते-बढ़ते कब ये सगाई टूटने पर आ गई पता ही नहीं चला।  एक दिन शाम को जब जैन परिवारों में सूर्यास्त पूर्व भोजन की परंपरा में घर में दादाजी भोजन के लिए बैठने ही वाले थे की फोन की घंटी बजी ! फोन उठाने पर "जय जिनेन्द्र" कहने के बाद बताया की "मैं आपकी होने वाली नई  बहु बोल रही हूँ। मुझे आपके घर में रिश्ता पसंद नहीं ! अभी जब मैं शादी करके नहीं आई हूँ और मुझ पर पर दबाव शुरू कर दिया हैं। घर में आने पर क्या होगा।  मेहरबानी करके आप यह रिश्ता टुटा हुआ ही समझिये।" दादाजी को झटका लगा और आधे घंटे पश्चात ह्रदयघात से चल बेस रिश्ते का यह रूप पीढ़ी के अंतर को दर्शाता हैं 



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आज हमारे ज़माने के विषय पर लिखते समय मेरा तात्पर्य यह है कि पीढ़ी के अंतर को दोनों पक्षों को समझना होगा। जीवन में यदि हम समझ कायम रखकर बच्चों को प्रारम्भ से ही ऐसी शिक्षा दे की वह अपने वरिष्ठों की कही गई बात को शिरोधार्य करे।  क्योंकि "माता-पिता या दादा-दादी की बात सुनने वाले पिछड़े लोग होते है", यह सोच ही गलत बात हैं। एक मित्र ने बातचीत में कहा था कि "कभी भी बच्चों से पूछा जाए की किसकी तरह बनना चाहते हो तो वह किसी सलेब्रिटी का नाम लेते हैं जैसे तेंदुलकर, गावस्कर, आमिर, शाहरुख़ या अक्षय परन्तु कोई अपने दादाजी या पिताजी का नाम नहीं लेता हैं। 


Key To Reduce Generation GAP Between Parents And Kids - lovingparents
हमारे ज़माने में 
जमाना किसी का भी हो हमारे काम, हमारे संस्कार और हमारी जीवन पद्धति ही हमारी पहचान होनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो हमारा जमाना पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा। जैसे प्यार हमारे जीवन का अंग हैं प्यार कल भी था आज भी हैं और कल भी रहेगा। तभी कहते हैं "लव कल आज और कल" 

बुधवार, 25 मार्च 2020

योग और संघ

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योग और संघ 


अपने जीवन के बाल्यकाल से ही मुझे योग की शिक्षा मिल गई थी।  खेलते-खेलते मित्रों के साथ कब संघ के स्वयंसेवक बने और कब व्यायाम के दौरान योग शिक्षा प्राप्त की पता ही नहीं चला और योग हमारे दैनिक जीवनचर्या का भाग बन गया। 




विगत कुछ वर्षों से बाबा रामदेव ने योग एवं स्वदेशी को मिशन बनाकर जनता के सामने रखा तो शायद उनकी प्रस्तुति और संघ की सहजता का अंतर समझ आया।  जमाना जिस दिशा में दौड़ रहा हैं उसे समझने के लिए अब सहजता के साथ व्यावसायिक समिश्रण होना आवश्यक हैं।  यह योग जिसे बचपन में करते थे उन्ही में सूर्य नमस्कार, ताड़ासन, तिष्ट  योग के साथ विभिन्न प्रकार के व्यायाम योग में योग क्र. 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8........  के माध्यम से शरीर में ऊर्जा का संचार तो विभिन्न खेलों के माध्यम से जिसमें स्वयंसेवकों का घेरा बनाकर एक स्वयं सेवक द्वारा राम -राम बोलते हुए साँस न टूटने देने वाले खेल के माध्यम से श्वशन क्रिया पर नियंत्रण ह्रदय की शक्ति का विस्तार हो इसी प्रकार शतरंज वाले खेल के माध्यम से मस्तिष्क का विकास  हमने बचपन से सीखा हैं। 




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योग और संघ 

योग जीवन में अनुशासन, आध्यत्म, जीवन का विस्तृत विकास एवं ऊर्जा के संचार का माध्यम हैं। बालयकाल से योग शिक्षा एक ज़माने में गुरुकुल पद्धति की शिक्षा में दी जाती थी। प्रातः काल समय पर उठना एवं दिनभर की समस्त कार्य पद्धति को एक समयबद्ध प्रक्रिया में पूर्ण करते हुए समय पर रात्रि विश्राम करने से मनुष्य का वर्तमान एवं भविष्य दोनों उज्जवल हो जाते हैं। आज की युवा पीढ़ी में आधुनिकता के साथ आध्यात्म के मार्ग का जुड़ाव सिर्फ संघ जैसे संगठनों से जुड़कर ही संभव हैं। राष्ट्र भक्ति का हिन्दू समाज की समरसता का या विपत्ति के समय मन में दया भाव उत्पन्न हो ऐसी सोच मात्र संघ जैसे विचारो से जुड़कर ही संभव हैं। 




योग यानि जुड़ना, योग यानि सूरत, योग यानि सिद्धांत इन सब पर व्यक्ति को एक साथ अमल करना चाहिए। 



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भारतीय जीवन मूल्यों में योग एक शिक्षा योग एक दर्शन एक जीवन पद्धति जो मानव से मानव को जोड़ने वाली हो बताया गया हैं। संघ और उसके अनुसांगिक संघठनो की स्थापना का मूल तत्व यही हैं कि व्यक्ति व्यक्ति में जगे राष्ट्र प्रेम की भावना और यही भावना देश को विश्व गुरु के स्थान पर काबिज करेगी।

योग के चार प्रकार हैं - राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग। समय समय पर हम इसका पूर्ण विवरण भी आपके सम्मुख रखेंगे परन्तु आज जब संघ और योग का साथ में विवरण करते हैं तो पाते हैं आज जब देश में अधिकांश लोगों के मन में संघ को लेकर यह धारणा हैं की यह भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से अपने पूर्व प्रचारक को माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी के रूप में देश का प्रधानमंत्री बनाकर राजनीति करता हैं तब यह जानना भी आवश्यक हैं कि मोदी जी का सफल प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करना उनकी प्रतिदिन की जीवनचर्या उनकी बेहतरीन जीवनचर्या और नीतिगत फैसले लेते समय उनकी निर्णय क्षमता में दैनिक योग नहीं बल्कि संघ के संस्कारों का योग हैं। एक अनुशासित स्वयंसेवक के रूप में स्वामी विवेकानन्द को आराध्य मानकर जो कार्य करते हैं। 


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योग और संघ 

 मोदी जी स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित हैं। मनुष्य के जीवन में बचपन से केंद्रित मानसिकता ही बड़ा असर करती हैं। आज देश सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित कर रहा हैं, तो उसमें लक्ष्य केंद्रित कार्य चित्त का प्रभाव विभिन्न परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता का विकास आदि कई बातें महत्वपूर्ण होती हैं। 

योग करने वाला व्यक्ति सदैव प्रसन्नचित्त होता हैं। नियमित योगाभ्यास रोगों से लड़ने कि क्षमता में वृद्धि करता हैं। नकारात्मक विचार एवं तनाव से मुक्त रहता हैं। 


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योग और संघ 
संघ के स्वयंसेवक और योग के विद्यार्थी के रूप में मैं इतना ही कहूँगा मेरे जीवन में दो ही योग हैं।  संघ और राष्ट्र प्रेम मैंने दोनों ही मार्ग अपनाकर जीवन को सुचारू चलाना सीखा। जीवन में किसी को भी सबकुछ हांसिल नहीं होता परन्तु बहुत कुछ प्राप्ति के लिए जीवन के मार्ग और मार्ग पर चलने वाले पथिकों के उत्तम साथ ही आवश्यकता होती हैं। 

आज यह लिखते समय मैं गुडी पड़वा नवसंवत्सर के  पावन पर्व पर सभी को शुभकामनायें प्रेषित करता हूँ।  आज ही के दिन संघ की स्थापना परमपूज्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने की थी।  उन्हें आद्य सरसंघचालक प्रणाम करता हूँ। मेरे जीवन पथ को संघ मार्ग से जुड़ने का अवसर मिला तथा जीवन में विभिन्न खेलों और योगिक क्रियाओं के माध्यम से मुझे जो ज्ञान और आध्यात्म की शिक्षा मिली हैं। अवसर मिला तो राष्ट्र प्रेम और संघ के लिए न्योछावर कर दूँगा। 




संघ और योग सिर्फ योग नहीं ईश्वरीय योग हैं जो मानव को ईश्वर से रूबरू करता हैं। 





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योग और संघ 


संस्कारों की खान हैं, जीवन का अरमान हैं। 
स्वयंसेवक का जीवन तों बस अनुशासन का प्रमाण हैं।

खेल-खेल में सीख जाते, शिक्षा, धर्म और ज्ञान हैं। 
भाईचारा, त्यागी जीवन देश प्रेम बलवान हैं 

संघ योग का मिश्रण तो भारत देश की शान हैं। 
अटल बिहारी और मोदी जी का शासन ही प्रमाण हैं। 

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मंगलवार, 24 मार्च 2020

कोरोना पर योग को संयोग नहीं सुयोग बनाओ


कोरोना पर भारी योगा
कोरोना पर भारी योगा

भारतीय जीवन मूल्यों में धर्म, संस्कार, संस्कृति, परंपरा, आध्यात्म और अपने जीवन मूल्यों पर स्थापित मार्ग पर चलने के परम्परा हैं। इस देश में युगों-युगों से भारतीय नागरिक कैसे होगा  उसका आचरण उत्तम करने के लिए स्वच्छ मन और पवित्र आत्मा की आवश्यकता होगी यह सभी को बचपन से समझाया जाता है। 


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हम जिन जीवन मूल्यों की अपनाते है उन मूल्यों का आधार मात्र धर्म नहीं बल्कि धर्म की स्थापना और उससे जुड़े कुछ ऐसे आधारभूत बातें होती हैं जो धरातल पर व्यावहारिक लगने में कठिन हो पर जिसने उन सभी बातों को अंगीकार कर लिया उसका जीवन सही मार्ग पर चलता नहीं बल्कि दौड़ने लगता है।  प्रकृति जन्य सुखों से भरा स्वयं के जीवन मूल्यों से अंतर मन एवं आंतरिक शरीर से सुखों का एक मार्ग हैं जिसे राम, कृष्ण, शिव एवं शक्ति सभी मानते हैं। वह हैं "योग"  आजकल जिस योगा भी कहा जाता हैं।  भोग विलास और पाश्चात्य जीवन पद्धति की ओर दौड़ते इस युग में प्रत्येक व्यक्ति योग की अपेक्षा मेडिक्लेम और उससे जुडी बीमा पॉलिसी  लेकर सुरक्षित महसूस करने का प्रयत्न करता हैं परन्तु मेरे शरीर में इतना सुख हैं की मैं योग के माध्यम से ईश्वर की भक्ति, आत्म संतुलित और स्वास्थ्य का अनुपम भंडार प्राप्त कर लूंगा यह सोच व्यक्ति के मन में आती ही नहीं हैं। 

कुछ दिनों पूर्व एक जैनाचार्य जी के मार्गदर्शन में मैंने सुना था कि आजकल व्यक्ति सुबह उठकर सबसे पहले देखता हैं की मेरा मोबाइल चार्ज  हैं की नहीं वह यह नहीं देखता की मैं, मेरा शरीर मेरी आत्मा और जीवनचर्या की योजना चार्ज हैं या नहीं।  भौतिक सुखों की होड़ जिंदगी को हरा रही हैं।  ऐसे में व्यक्ति का स्वयं चार्ज होना जरुरी हैं।  जीवन के इस कठिन पथ पर पग -पग पर चुनौतियाँ हैं।  हमें इन चुनौतियों से लड़ने के लिए सिर्फ शरीर नहीं आत्मबल को मजबूत बनाना पड़ेगा।  पाश्चात्य पद्धति की जिम में संगीत की मधुर ध्वनि के साथ पसीना बहा कर बॉडी मेंटेन करने से शरीर सौष्ठव तो हो जाता हैं, पर शरीर और मन का लचीलापन जो योग के माध्यम से प्राप्त होता हैं जिम में संभव नहीं हैं। हमारी सन्त परम्परा में भी इसका उल्लेख हैं। 


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फिट इंडिया 

भारतीय संत परम्परा में ग्रंथो पर आधारित तथ्यों के अलावा पतंजलि योग पीठ के माध्यम से बाबा रामदेव ने मिडिया, सोशल मीडिया, कैंप, प्रचार-प्रसार आदि को माध्यम बना कर योग को घर-घर तक पहुँचाने में कामयाबी प्राप्त की। भारतीय धर्म शास्त्रों में योग को सदैव आधार बनाया गया हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों से यह कहा जा सकता हैं कि भारतीय सांस्कृतिक दर्शन हैं जो सम्पूर्ण विश्व को मार्गदर्शन प्रदान कर रहा हैं। 




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पतंजलि योग सूत्र 

आज हम covid 19 वायरस कारण कोरोना नामक बीमारी से वैश्विक महामारी से झुझ रहे हैं।  संक्रमणकारी यह रोग जिस स्थिति से विश्व के अन्य देशों को प्रभावित कर रहा हैं, ऐसा भारतीय वातावरण में नहीं हैं। सरकार के सजगता के साथ भारतीय नागरिको के पास प्रकृति जन्य साधन जैसे आयुर्वेद का काढ़ा, नीम, तुलसी, एलोवेरा, नीम्बू , आंवला, चिरायता जैसे औषिधियाँ हैं। वहीं योग के माध्यम से अपनी श्वसन क्रिया पर नियंत्रण करने वाले अनुलोम-विलोम, कपाल भारती, भ्रामरी, सूर्यनमस्कार जैसी योगिक एवं व्यायाम की क्रियाएं हैं।  जिससे शरीर को एवं योग साधना के माध्यम से चित एवं मन को एकाग्र कर आत्मा शुद्धि का कार्य किया जाता हैं। 



कुंडलीनी को जागृत करना योग को विशिष्ठ शैलियों में आता हैं जिससे मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होता हैं।  अभी हमें योग की उस स्थिति का चिंतन नहीं करना हैं क्यूंकि भागदोड की इस जिंदगी में सहज साधना से जन साधारण के मानस तक पहुँचाने वाली बातों को ही करना महत्वपूर्ण होता हैं। देश का नागरिक जिन सामान्य नियमों में चलकर स्वयं का उध्दार कर सके उतना ही काफी होता हैं। 



योग शब्द का अर्थ सम्बन्ध या मिलन जुड़ाव होता हैं। दर्शनशास्त्र में योग का अर्थ जीवात्मा और परमात्मा का मिलन "योग" हैं।  भारतीय परम्परा में पतंजलि ने योग सूत्र की रचना  हैं। समय-समय पर सभी ने अपनी व्याख्या के अनुसार योग के बारे में कहा हैं, जिसमें गोस्वामी तुलसीदास, कबीर, गुरु गोविन्द सिंह, जैन-बौद्ध धर्म के विभिन्न रचनाकारों ने इसे अपनी विचारधारा के अनुसार रचा हैं। 






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योग मात्र अक्षरों से रचा एक शब्द नहीं बल्कि विश्व को एक सूत्र में बांधने वाला एक बंधन हैं। भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में 21 जून को योग दिवस घोषित करने की बात स्वीकृत कराकर भारत को पुनः विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त हो उस ओर कदम बढ़ाया हैं। भारतीय शिक्षा एवं संस्कृति जिसमें शून्य की खोज से लेकर आयुर्वेद की श्रुश्रुत एवं चरक सहिंता हो या योग दर्शन एक नया मार्ग प्रदान किया हैं। 



पाश्चात्य संस्कृति की भागदौड़ भरी जिंदगी से आध्यात्म की ओर बढ़ने की परम्परा को श्री श्री रवि शंकर ने विश्व के कई देशों तक पहुँचाया।  आर्ट ऑफ़ लिविंग के माध्यम से अपनी जीवन पद्धिति में सुख और आनंद की अनुभूति का मार्ग बताया हैं। 



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श्री श्री रविशंकर जी 
आइये हम सभी मिलकर भारतीय संस्कारों के इस अद्भुत खजाने का आनंद लें। खुशियों को भौतिक वस्तुओं में तलाशने की अपेक्षा अंतरमन में खोजें। सुख कही और नहीं हमारे अंदर है। ईश्वर कही और नहीं हमारे मध्य हैं। चित्त और मन की एकाग्रता ही योग हैं।  विश्व की यह भयानक बीमारी हम अपने अंदर प्रवेशित न होने दे।




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योग को संयोग नहीं सुयोग बनाओ। 
अपने अंगो को सुडोल और मजबूत बनाओ।

जीवन में श्वसन पर नियंत्रण जरुरी। 
अनुशासन के साथ संयम से भी न बने कोई दुरी 

आज मिलकर अपना सुख अपनाएँ। 
योग को अपनाकर दुःख को दूर भगाएँ  

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नादान बने क्यों बेफिक्र हो ?

नादान बने क्यों बेफिक्र हो ? नादान बने क्यों बेफिक्र हो,  दुनिया जहान से !   हे सिर पे बोझ भी तुम्हारे,  हर लिहाज़ से !!  विनम्रत...